पश्चिम बंगाल की गोरखा समुदाय के बीच 11 जनजातियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिलाने की माँग कई दशकों से उठ रही है। बावजूद इसके, आज तक इन जनजातियों को मान्यता नहीं मिल पाई है। यह मुद्दा लंबे समय से राजनीतिक और सामाजिक बहस का विषय बना हुआ है।
दार्जिलिंग के विधायक नीरज जिम्बा ने इस विषय पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि बार-बार आश्वासन दिए जाने के बावजूद केंद्र और राज्य सरकार की ओर से अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। उन्होंने कहा कि यह गोरखा समाज के साथ लगातार हो रहा अन्याय है, जिसे अब खत्म होना चाहिए।
गोरखा समाज की माँग है कि उन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया जाए, ताकि वे भी मुख्यधारा के विकास में समान रूप से भागीदार बन सकें। इस दर्जे से उन्हें शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ मिलेगा। समाज का कहना है कि 2005 से अब तक इस मामले को बार-बार केंद्र सरकार के समक्ष रखा गया, कई समितियाँ बनीं, सर्वे हुए, लेकिन परिणाम शून्य रहा।
विधायक नीरज जिम्बा ने कहा कि 11 गोरखा जनजातियाँ दशकों से अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही हैं। राजनीतिक मंचों पर यह मुद्दा कई बार उठाया गया, लेकिन केवल वादे और घोषणाएँ ही सामने आईं। उन्होंने केंद्र सरकार से आग्रह किया कि इस मामले पर त्वरित निर्णय लिया जाए।
गोरखा समुदाय की इन 11 जनजातियों में अधिकांश अब भी सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार की सुविधाएँ इन तक पर्याप्त रूप से नहीं पहुँच पाई हैं। अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलने पर न केवल इन्हें सरकारी लाभ मिलेगा, बल्कि इनके जीवन स्तर में भी सुधार आएगा।
गोरखा राजनीतिक नेतृत्व ने भी केंद्र और राज्य सरकार से अपील की है कि इन जनजातियों को शीघ्र ही मान्यता दी जाए। नेताओं का कहना है कि इस मुद्दे को टालना न केवल गोरखा समाज की उपेक्षा है, बल्कि संवैधानिक न्याय की भावना के खिलाफ भी है।
स्थानीय निवासियों का कहना है कि गोरखा समाज की जनजातियाँ वर्षों से अपने हक के लिए संघर्षरत हैं। कई बार रैलियाँ, आंदोलन और धरने भी हुए, लेकिन अब तक परिणाम सामने नहीं आया। उनका कहना है कि अब समय आ गया है कि सरकार इस पर ठोस कदम उठाए और गोरखा समाज को न्याय दिलाए।
गोरखा समाज की 11 जनजातियों की मान्यता का मुद्दा लंबे समय से अधर में है। दार्जिलिंग के विधायक नीरज जिम्बा और अन्य गोरखा नेताओं ने स्पष्ट किया है कि यह केवल एक राजनीतिक माँग नहीं, बल्कि गोरखा समाज के अस्तित्व और भविष्य से जुड़ा सवाल है। अब देखना होगा कि केंद्र और राज्य सरकार कब तक इस पर निर्णय लेती हैं। गोरखा समाज उम्मीद कर रहा है कि जल्द ही उन्हें वह अधिकार मिलेगा, जिसके लिए वे दशकों से संघर्ष कर रहे हैं।