किसी व्यक्ति की पहचान उसके काम से होती है. व्यक्ति दो तरह से समाज में अपनी छाप छोड़ता है. एक तो वह अच्छे काम करता है जिससे उसकी चर्चा होने लगती है. या फिर अत्यंत घृणित और निंदनीय कार्य को अंजाम देकर समाज को झकझोड़ने लगता है. एमडी अब्बास ने इसी रास्ते से सिलीगुड़ी और आसपास के लोगों में अपनी पहचान कायम की है. इस लड़के ने पिछले महीने माटीगाड़ा के बहुचर्चित बालिका हत्याकांड को अंजाम दिया था. पूरा सिलीगुड़ी शहर उसके लिए फांसी की सजा की मांग कर रहा है. अगर पुलिस ने उसे गिरफ्तार नहीं किया होता तो शायद पब्लिक उसका फैसला कर देती. क्योंकि उसका अपराध ही कुछ ऐसा था!
आज हत्यारोपी मोहम्मद अब्बास की सिलीगुड़ी कोर्ट में पेशी थी. कड़ी सुरक्षा के बीच मोहम्मद अब्बास को पुलिस ने सिलीगुड़ी कोर्ट में पेश किया था. अब तक मोहम्मद अब्बास को पुलिस तीसरी बार कोर्ट में हाजिर कर चुकी है. कोर्ट ने उसकी जमानत की अर्जी ना मंजूर कर दी और उसे न्यायिक हिरासत में रखने का आदेश दिया. 29 सितंबर को उसे फिर से कोर्ट में पेश किया जाएगा. जेल की हवा खा रहे मोहम्मद अब्बास को अपने किए पर कितना अफसोस है? जेल में वह कैसा महसूस करता है? क्या जेल में अपराधी सुधर जाते हैं या फिर बिगड़ जाते हैं, ये कुछ प्रश्न है जो अचानक उत्पन्न हुए हैं और चर्चा के केंद्र में है.
अब मैं आपको कुछ ऐसे मंजर दिखाना चाहता हूं, जिन्हें देखकर आप खुद ही मोहम्मद अब्बास के कैदी जीवन पर काफी कुछ अनुमान लगा सकेंगे. याद करिए उस दिन को जब पुलिस ने एक नाबालिक स्कूली बालिका की हत्या के जुर्म में मोहम्मद अब्बास को गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया था. जहां वह लोगों की नजरों का सामना करने में घबरा रहा था. भारी सुरक्षा व्यवस्था के बीच पुलिस ने उसे कोर्ट में हाजिर कर कर रिमांड पर लिया था. तब माहौल इतना विस्फोटक हो चुका था कि अदालत के बाहर ही विभिन्न समुदायों के लोग उसे फांसी की सजा देने की मांग कर रहे थे. अगर पुलिस ने सावधानी से काम नहीं लिया होता तो उस पर हमले भी हो सकते थे.
रिमांड की अवधि पूरी होने के बाद पुलिस ने एक बार फिर से मोहम्मद अब्बास को कोर्ट में पेश किया था. तब उसका हुलिया बदला हुआ था. उसने नई शर्ट पहन रखी थी. चेहरा और हाव-भाव कुछ ऐसा नहीं था, जहां उसे एहसास हो कि उसने एक बड़ा गुनाह किया हो. लोगों ने उसका कॉन्फिडेंस लेवल भी देखा. वह खुद को पुलिस की बराबरी में देख रहा था. आज एक बार फिर से वही नजारा देखा गया, जब पुलिस ने उसे कोर्ट में हाजिर कराया. एक बार फिर से उसकी ड्रेस बदली हुई थी. चेहरा भरा हुआ था. स्टाइल, पोज देखकर ऐसा नहीं लग रहा था कि उसे अपने गुनाहों पर अफसोस हो रहा हो. ऐसा लग रहा था कि सपाट चेहरे के पीछे कहीं ना कहीं एक बारीक मुस्कान भी खेल रही थी. और कॉन्फिडेंस लेवल तो कमाल का! कम से कम हमारा कैमरा तो यही कुछ एहसास दिला रहा है.
सवाल तो यह भी है कि जेल में जाकर अपराधी सुधरते हैं या फिर बिगड़ जाते हैं. कैमरा झूठ नहीं बोलता. हम कानून व्यवस्था, पुलिस प्रशासन, जेल, हवालात आदि संवैधानिक प्रावधानों पर सवाल नहीं उठा रहे हैं. देखा जाता है कि जब एक व्यक्ति किसी जुर्म में जेल जाता है तो वह लोगों की नजरों तथा कैमरा का सामना करने में काफी घबराता है. उसे कहीं ना कहीं अपने किए पर घोर पश्चाताप होता है. संविधान में पुलिस, कानून और जेलखाना की व्यवस्था अपराधियों के लिए की गई है. संविधान निर्माताओं ने इन सभी का प्रावधान यह सोचकर किया था कि यहां जुर्म करने वाला अपने गुनाहों का प्रायश्चित करता है!
लेकिन अब समय बदल गया है. संसाधन भी बदले हैं. लोगों के मिजाज भी बदले हैं. पुलिस का अपराधियों के प्रति रवैया भी बदला है. क्या इसी का नतीजा है कि अपराधियों के लिए जेल एक प्रतीक मात्र रह गया है. खैर इन घटनाओं से अभी किसी खास नतीजे पर पहुंचना जल्दबाजी होगी. जब 29 सितंबर को दोबारा मोहम्मद अब्बास की कोर्ट में पेशी होगी, तब कुछ और संदेह और सवालों के जवाब मिल जाएंगे.