पश्चिम बंगाल में मतदाता ड्राफ्ट सूची प्रकाशित होने के बाद भारतीय जनता पार्टी और टीएमसी के बीच वाक युद्ध छिड़ गया है. टीएमसी बीजेपी पर हमलावर है, वहीं भाजपा भी टीएमसी पर नए-नए आरोप लगा रही है. दरअसल चुनाव आयोग की वेबसाइट पर मतदाता सूची से बाहर किए गए नामो का अध्ययन और विश्लेषण से यह स्थिति उत्पन्न हुई है. कहीं ना कहीं भाजपा के दावे की भी पोल खुली है, तो दूसरी तरफ टीएमसी को भी यह सोचने पर मजबूर किया है कि चुनाव आयोग की कार्य प्रणाली पर हर समय उंगली उठाना ठीक नहीं है.
SIR के पहले चरण का काम पूरा हो गया है. ड्राफ्ट लिस्ट के अनुसार पूरे राज्य में मतदाताओं की संख्या 7.66 करोड़ से घटकर 7.08 करोड़ आ गई है. पूरे प्रदेश में कुल 58 लाख, 20 हजार 898 मतदाताओं के नाम सूची से हटाए गए हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि ये किनके नाम हैं? क्या ये सभी घुसपैठिए तो नहीं हैं?
तो इसका जवाब है कि ये लोग घुसपैठिए नहीं हैं. यह वे लोग हैं जो दो जगह अथवा दो राज्यों के वोटर कार्ड रखते हैं और जब एस आई आर के लिए उन्हें किसी एक जगह को चुनना पड़ा तो उन्होंने अपने मूल प्रदेश को चुना, जहां से वे आते हैं. यानी कटे नाम में सबसे ज्यादा प्रवासी लोग हैं, जो बिहार, उत्तर प्रदेश तथा अन्य राज्यों से रोजी-रोटी कमाने के लिए बंगाल आए और यहीं बस गए.
अगर यह कहा जाए तो कोई गलत नहीं होगा कि कटे नाम में सर्वाधिक संख्या हिंदी भाषियों की है. इसके अलावा मृत व स्थाई रूप से पलायन कर गए मतदाताओं की संख्या भी अधिक है. एक रिपोर्ट के अनुसार इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार पश्चिम बंगाल के जिन विधानसभा क्षेत्रों में हिंदी भाषी लोगों की संख्या अधिक है, वहां सबसे अधिक नाम हटाए गए हैं. दूसरे स्थान पर मुस्लिम बहुल इलाके आते हैं.
जिन विधानसभा इलाकों में मुस्लिम आबादी अधिक है, वहां मतदाताओं के नाम कटने की दर हिंदी भाषी बहुल विधानसभा इलाकों से अपेक्षाकृत कम है. विश्लेषण से पता चलता है कि अधिकांश मुस्लिम बहुल क्षेत्र में नाम कटने की दर 10 प्रतिशत से कम है. जबकि जिन इलाकों में हिंदी भाषी और प्रवासी लोग रहते हैं वहां सबसे ज्यादा नाम काटे गए हैं. टीएमसी जो शुरू से ही चुनाव आयोग और बीजेपी पर आरोप लगाती रही है कि SIR किसी खास समुदाय को निशाना बनाकर चलाया जा रहा है, इस आंकड़े के बाद उनके दावे भी कमजोर हो गए हैं.
रिपोर्ट के अनुसार पश्चिम बंगाल की 80% मुस्लिम बहुल सीटों पर नाम कटने की औसत दर 0.6% ही है. जबकि दूसरी तरफ हिंदी भाषी और प्रवासी बहुल इलाकों जैसे कोलकाता उत्तर में नाम कटने की प्रतिशत दर 25 से भी ज्यादा है. कूचबिहार, जलपाईगुड़ी, मालदा और इस तरह से पूरे प्रदेश में विधानसभा क्षेत्रों के मतदाताओं के कटे नाम का विश्लेषण करने के बाद स्पष्ट पता चलता है कि हिंदी भाषी और प्रवासी बहुल इलाकों में नाम हटाने की दर सर्वाधिक है.
बंगाल की सियासत में भाजपा के लिए मतुआ समुदाय काफी अहम माना जाता है. मतुआ समुदाय बहुल इलाकों में भी अधिक नाम कटे हैं.दक्षिण 24 परगना, सोनारपुर ,उत्तर 24 परगना आदि विधानसभा सीटों में मतुआ समुदाय के मतदाताओं के नाम अधिक काटे गए हैं.
आपको याद होगा कि भाजपा नेता शुभेंदु अधिकारी ने दावा किया था कि पूरे प्रदेश से कम से कम एक करोड़ मतदाताओं के नाम काटे जाएंगे. भाजपा की ओर से दावा किया गया था कि SIR का सबसे ज्यादा असर मालदा, मुर्शिदाबाद, नदिया आदि में देखने को मिलेगा. क्योंकि इन्हीं इलाकों में सबसे ज्यादा घुसपैठ हुई है. जबकि सच्चाई यह है कि इन सीमावर्ती जिलों में मतदाताओं के बारे में कुछ गड़बड़ियां जरूर सामने आई हैं. ये गड़बड़ियां हैं माता-पिता की उम्र में काफी अंतर, और कुछ सामान्य त्रुटियां. इसके अलावा इन इलाकों में बड़े पैमाने पर मतदाताओं के नाम नहीं काटे गए हैं.
टीएमसी को भाजपा पर हमले करने का अवसर मिल गया है. अभिषेक बनर्जी ने कहा है कि SIR के बाद ड्राफ्ट वोटर लिस्ट ने बीजेपी के झूठ को बेनकाब कर दिया है कि बंगाल में एक करोड़ रोहिंग्या व बांग्लादेशी रह रहे हैं. अभिषेक बनर्जी ने कहा है कि बीजेपी जिस तरह सभी बंगालियों को बांग्लादेशी कहकर बदनाम कर रही है, वह अत्यंत शर्मनाक है. बीजेपी को बंगाल के लोगों से माफी मांगनी चाहिए.
टीएमसी जो शुरू से ही चुनाव आयोग और भाजपा पर एस आई आर को लेकर हमलावर रही है, इस अध्ययन और विश्लेषण के बाद उसे भी सोचने का अवसर मिलेगा. स्पष्ट हो जाता है कि SIR को लेकर समाज में एक सियासी भय व आशंका फैलाई गई थी. यह भी इशारा है कि चुनाव आयोग की कार्य प्रणाली को राजनीतिक चश्मे से नहीं देखना चाहिए. खासकर SIR को लेकर यही कह सकते हैं कि यह मतदाता सूची को दुरुस्त करने की एक प्रशासनिक कार्य प्रणाली है.
