उत्तर बंगाल का एक और चर्चित चाय बागान मेचपाड़ा बागान बंद हो गया. यह चाय बागान अलीपुरद्वार जिले के कालचीनी प्रखंड में आता है. किसी ने भी कल्पना नहीं की थी कि बागान बंद हो जाएगा. पर बागान बंद हो गया और इसके साथ ही 1300 से अधिक चाय श्रमिक रास्ते पर आ चुके हैं. बागान बंद होने को लेकर श्रमिकों और प्रबंधन पक्ष में आरोप प्रत्यारोप जारी है. परंतु इसमें कोई शक नहीं है कि नुकसान चाय श्रमिकों का ही होगा. उनके सामने रोजी-रोटी का संकट बढ़ गया है.
उत्तर बंगाल चाय बागान के लिए विख्यात है. लेकिन एक-एक कर यहां के चाय बागान बंद होते जा रहे हैं. आखिर क्या कारण है कि चाय बागान बंद हो रहे हैं? इन सभी के पीछे श्रमिकों का असंतोष और प्रबंधन पक्ष की डिक्टेटरशिप जिम्मेवार है. श्रमिक कम वेतन में पूरे 8 घंटे काम करना नहीं चाहते हैं. जबकि प्रबंधन पक्ष चाहता है कि श्रमिक पूरे 8 घंटे काम करें. श्रमिकों का रोना है कि एक तो उन्हें कम पैसे मिलता है, वह भी उन्हें समय पर भुगतान नहीं किया जाता. कहने के लिए तो श्रमिकों का यूनियन भी है. लेकिन वह भी राजनीति के शिकार है. उनकी तरफ से ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जाता है, जिससे कि श्रमिक और प्रबंधन पक्ष के बीच समन्वय स्थापित हो सके.
इस बागान में काम करने वाले श्रमिकों को पहले से कोई पता नहीं था. वह सुबह-सुबह जब काम पर पहुंचे तो उन्होंने फैक्ट्री के गेट पर ताला लटका देखा. प्रबंधन पक्ष ने कार्य स्थगन का नोटिस लगाया था. बागान श्रमिक अचंभित होकर रह गए. बागान बंद होने के श्रमिक पक्ष, यूनियन, भारतीय चाय संघ और बागान प्रबंधक के दावे अलग-अलग हैं. मेचपाड़ा बागान के प्रबंधक हैं एन के सिंह. उनका कहना है कि चाय बागान में किसी भी तरह का अनुशासन नहीं है. श्रमिक ठीक से काम नहीं करते हैं. अगर उनसे कुछ कहो तो झगड़ा करने लगते हैं. 8 घंटे काम नहीं करते हैं. इसलिए बागान बंद करना पड़ा.
लेकिन बागान बंद होने का भारतीय चाय संघ के सचिव सुमित घोष जो कारण बताते हैं, वह श्रमिकों के लिए जरूर विचारणीय है. वे श्रमिकों के असंतोष की बात जरूर कहते हैं. वे कहते हैं कि श्रमिक 8 घंटे काम करना नहीं चाहते हैं. लेकिन इसके साथ ही वे यह भी मानते हैं कि श्रमिक मैनेजर का घेराव भी किया करते थे. परंतु सवाल यह है कि मैनेजर का घेराव करने की नौबत कैसे आई? अगर चाय बागानों के पिछले इतिहास पर नजर डालें तो बात समझ में आ जाती है. चाय बागान प्रबंधन के द्वारा मजदूरों का समय पर भुगतान नहीं किया जाता है. एक तो उन्हें कम पैसे मिलते हैं और वह भी समय पर नहीं मिले तो ऐसे में किसी को भी गुस्सा आना स्वाभाविक है. रेड बैंक व सुरेंद्रनगर बागान का उदाहरण सामने है. जहां श्रमिकों और मालिकों के बीच समस्या समाधान लेनदेन को लेकर यथावत है.
उत्तर बंगाल में किसी समय 1000 से भी अधिक चाय बागान हुआ करते थे. लेकिन आज कुछ गिने चुने ही रह गए हैं. जो वर्तमान में चल रहे हैं, उनका भविष्य भी कोई लंबा नहीं दिख रहा है. विभिन्न अध्ययनों और रिपोर्ट से पता चलता है कि श्रमिकों और बागान प्रबंधन के बीच लड़ाई झगड़ा, असंतोष के साथ-साथ राजनीति ही बागान को बंद करने पर मजबूर कर रही है. ऐसा कोई चाय बागान नहीं है जहां श्रमिकों का बकाया वेतन लंबित नहीं हो. चाय बागान के मालिकों की समस्या यह है कि उन्हें बागान से कमाई नहीं हो रही है. इसलिए वह समय पर श्रमिकों का भुगतान नहीं कर पाते हैं या फिर बागान बंद करने का बहाना देखते रहते हैं.
जो भी हो, नुकसान तो चाय बागान के श्रमिकों को ही उठाना पड़ता है.क्योंकि उन्हें थोड़ी सी कमाई में ही परिवार का पेट पालना होता है. जब कोई चाय बागान बंद हो जाता है तब श्रमिकों को भी कहीं ना कहीं पछतावा होता है. जैसे मेचपाड़ा चाय बागान बंद हो जाने के बाद श्रमिक कहते हैं कि अगर कोई बात होती तो प्रबंधन को उनके साथ बैठना चाहिए था. ऐसे बागान बंद करके उन्हें नहीं जाना चाहिए था. आवश्यकता इस बात की है कि बागान संचालन के लिए प्रबंधन और श्रमिकों के बीच समन्वय होना जरूरी है. राजनीतिक दलों की यूनियन को किसी तरह की राजनीति से ऊपर उठकर दोनों के बीच सहयोग बढ़ाने का काम करना चाहिए.बागान बंद होने के पीछे के कारणो पर विचार करके उसका उचित समाधान निकालना चाहिए. इसमें सरकार की भी भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. अगर ऐसा नहीं होता है तो एक-एक करके उत्तर बंगाल के चाय बागान बंद होते जाएंगे.