सिलीगुड़ी विविधताओं से भरा एक ऐसा शहर है, जहां अमीर गरीब सब खुश रहते हैं. भले ही उनके पास जरूरी सुविधाएं नहीं हो, लेकिन फिर भी इस शहर से उनकी कोई शिकायत नहीं है. वे खुद में मस्त रहते हैं. सिलीगुड़ी की आबोहवा, अपनापन सब कुछ उन्हें अच्छा लगता है. इस बार होली पर खबर समय ने सिलीगुड़ी के परदेसी श्रमिक मजदूरों के बीच जाकर उनके द्वारा मनायी जाने वाली होली के कुछ अनछुए पहलुओं को जानने की कोशिश की. आप भी जानिए, कैसी होती है सिलीगुड़ी के परदेसी मजदूरों की होली!
सिलीगुड़ी में परदेसी श्रमिक व मजदूर सब जगह मिल जाएंगे. सिलीगुड़ी के मध्य क्षेत्र यानी हिलकार्ट रोड, सेवक रोड और पाॅश एरिया छोड़कर लगभग सभी जगह दिहाड़ी मजदूर मिल जाते हैं. इनमें से ज्यादातर लोग किराये के मकान में रहते हैं. गंगानगर, संतोषी नगर, खालपारा, कुलीपाड़ा,गुरुंग बस्ती, प्रधान नगर, चंपासारी, देवीडांगा, सिलीगुड़ी जंक्शन क्षेत्र, दार्जिलिंग मोड़,तीनबती, फूलबारी, नौका घाट क्षेत्र, ईस्टर्न बायपास,मेडिकल, कावाखाली इत्यादि क्षेत्रों में इनकी आबादी सर्वाधिक है. क्योंकि यहां सस्ते मकान मिल जाते हैं.
जब होली की बात चली तो रामदरस, प्रभाकर, भूषण, राम प्रसाद, और सिलीगुड़ी के रेगुलेटेड मार्केट में काम करने वाले विमल, सुमन और प्रभु दयाल जैसे अनेक दिहाड़ी मजदूरों ने सिलीगुड़ी में होली मनाने का अपना अंदाज बताया. इन सभी लोगों ने एक बात जरूर कही कि सभी जगह से सिलीगुड़ी की होली अद्भुत होती है. शांतिपूर्ण होती है. होली के दिन खाना और पीना ही उनका मकसद होता है. इसके साथ ही वे जमकर होली खेलते हैं. कभी-कभी नशा ज्यादा हो जाता है तो यार दोस्तों के बीच हंगामा भी होने लगता है. कभी-कभी मारपीट भी हो जाती है. अब पहले से हालात बदले हैं. लेकिन पीना कम नहीं हुआ है.
सिलीगुड़ी के दिहाड़ी श्रमिक व मजदूर होली की तैयारी काफी समय पहले से ही शुरू कर देते हैं. थोड़े-थोड़े पैसे जमा करके होली से 2 दिन पहले ही शराब का स्टॉक जमा कर लिया जाता है. जो मजदूर गांव नहीं जा पाते हैं, वह अपने कुछ साथियों के बीच ही पैसे शेयर करके जमकर होली मनाते हैं. कभी-कभी नशा चढ़ने लगता है तो हुड़दंग भी शुरू हो जाती है. लेकिन अब जमाना खराब हो गया है. बहुत से लोग होली के दिन ही अपनी दुश्मनी निकालने लगते हैं. इसलिए वे अनजान लोगों के घर नहीं जाते और अपने ही लोगों के बीच दिनभर रंग गुलाल, पीना खाना… यही सब चलता है. दूसरे लोग जहां एक दिन होली मनाते हैं, वहीं सिलीगुड़ी के परदेसी श्रमिक मजदूर कम से कम दो दिन होली मनाते हैं और दोनों ही दिन जमकर खाना पीना होता है.
होली हो और होली में खाने पीने की बात ना हो तो होली का मजा ही किरकिरा हो जाता है. खाना तक तो सही है, लेकिन जब पीने की बात आती है तो सिलीगुड़ी शहर हमेशा से ही कुछ ज्यादा ही इसमें तरंग ढूंढने लगता है. यूं तो सिलीगुड़ी और पूरे बंगाल में हर उत्सव का मजा अद्भुत होता है. यहां के लोग कोई भी त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाते हैं. लेकिन जहां तक होली की बात है, इसका नशा तो कई दिन पहले ही चढने लगता है. खासकर सिलीगुड़ी के दिहाड़ी मजदूरों पर, जिनका होली मनाने का अंदाज ही निराला होता है.
आमतौर पर होली को खाने पीने का त्यौहार ही समझा जाता रहा है. एक गरीब से गरीब मजदूर भी कई दिन पहले से ही होली की तैयारी में जुट जाता है. सिलीगुड़ी नगर निगम के एक वार्ड में रहने वाला सरोज नया बाजार में पलदारी का काम करता है. उसके बीवी बच्चे गांव में रहते हैं. सरोज यहां किराए के मकान में रहता है. जब उससे यह पूछा गया कि वह होली कैसे मनाते हैं, तो उसने जवाब दिया, होली में गांव जाना है. लेकिन बस में टिकट नहीं मिल रहा है. शायद नहीं जा पाऊं. अगर नहीं गया तो होली यहीं जमकर मनाऊंगा. बोतल श्याम नारायण लाएगा. मुर्गा मेरी तरफ से रहेगा.
श्याम नारायण भी नया बाजार में मजदूरी करता है. एक हफ्ते पहले से ही उसकी बनियान रंग से सराबोर हो चुकी है. बाजार में ही अपने कुछ दोस्तों के साथ उसने रंगों की होली खेली थी. रंग पक्का था. अब वह बनियान से उतर नहीं रहा है. कितना भी धोया लेकिन रंग नहीं उतर रहा. अब धोना बंद कर दिया है. कहता है कि अगर बनियान में रंग नहीं हो तो होली कैसी. रंग लगी बनियान को दिखाकर वह खुद पर गर्व करता है. श्याम नारायण ने दार्शनिक अंदाज में कहा, जिंदगी चार दिनों की है. खाओ पीयो मौज करो. श्याम नारायण को पीने का खूब शौक है. होली में 1 महीने की कमाई खाने-पीने में ही खर्च कर देने की योजना बनाई है.
राधेश्याम अपने किराए के कमरे में मोबाइल पर होली का गीत सुन रहा था. वह सेवक रोड में एक दुकान में नौकरी करता है. महीने के ₹10000 मिलते हैं. राधेश्याम छपरा का रहने वाला है. उसकी बीवी व बच्चे गांव में ही रहते हैं. गांव से बीवी का फोन आया था. पैसे मंगा रही है. लेकिन यह नहीं कहा कि तुम गांव आ जाओ. इससे राधेश्याम काफी दुखी है. कहने लगा, बीवी को पैसे चाहिए. मैं नहीं. सब स्वार्थी हैं. जब उसे मेरी परवाह नहीं, तो मैं क्यों उसकी परवाह करूं. राधेश्याम यहां अपनी जमात में काफी खुश है. कहने लगा, गांव जाना कैंसिल. उसने कहा, यहीं अपने लोगों के बीच जमकर होली मनाऊंगा.
एक अनुमान के अनुसार सिलीगुड़ी में 62% श्रमिक और मजदूरों में से केवल दो प्रतिशत ही अपने बीवी बच्चों के साथ सिलीगुड़ी में रहते हैं. 58% लोगों के पास अपना खुद का मकान नहीं है. ये किराए के कमरे में रहते हैं. इन मजदूरों से बातचीत में उनका दर्द भी छलक कर बाहर आया है. यह दर्द कुछ ऐसा है, जिसका बयां वह नहीं कर सकते. अथवा करना नहीं चाहते. लेकिन इस दर्द को भुलाने के लिए पीना उनकी मजबूरी बन जाती है. अपनों से दिया गया दर्द और जख्म को भुलाने के लिए उनके जीवन का अंदाज काफी दार्शनिक हो गया है. भले ही ज्यादा पढ़ लिख नहीं पाए हो, पर वक्त और अनुभवों ने उन्हें एक ज्ञानी से भी ज्यादा समझदार और अनुभवी बना दिया है.