दार्जिलिंग लोकसभा के लिए विभिन्न दलों के प्रत्याशियों की ओर से चुनाव प्रचार जोर पकड़ता जा रहा है. भारतीय जनता पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस और निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव प्रचार में जुट गए हैं. पहाड़ से लेकर समतल तक हर उम्मीदवार अपने समर्थकों के साथ मतदाताओं के पास जा रहा है. लेकिन मतदाता खामोश है. यहां 26 अप्रैल को मतदान होगा. लेकिन क्या आप जानते हैं कि दार्जिलिंग लोकसभा सीट आजादी के साथ ही अस्तित्व में नहीं आ गई थी. आरंभ में पूरे उत्तर बंगाल में लोकसभा की केवल तीन सीट ही थी. आइए दार्जिलिंग समेत उत्तर बंगाल की विभिन्न लोकसभा सीटों के इतिहास पर एक नजर डालते हैं.
दार्जिलिंग लोकसभा सीट भारत की आजादी के साथ ही अस्तित्व में नहीं आई है. बल्कि 1957 में दार्जिलिंग लोकसभा सीट वजूद में आई. उससे पहले उत्तर बंगाल में लोकसभा की केवल तीन सीटें थी. यह तीन सीटें थीं, कूचबिहार, मालदा और बालूरघाट. हमारे देश में पहला आम चुनाव 1951-1952 में हुआ था. उस समय पूरे देश में लोकसभा की कुल 489 सीटें थी. जबकि वर्तमान में लोकसभा की 543 सीटें हैं.
आरंभ में उत्तर बंगाल की तीनों लोकसभा सीटों पर कांग्रेस का जबरदस्त प्रभाव था. दो सीटों पर कांग्रेस का कब्जा था. 1951 में कूचबिहार के पहले सांसद थे उपेंद्रनाथ बर्मन. 1952 में मालदा के पहले सांसद थे सुरेंद्र मोहन घोष और बालूरघाट के पहले सांसद सुशील रंजन चट्टोपाध्याय थे. एक लंबे अरसे तक उत्तर बंगाल में लोकसभा की तीन सीटें ही रही. लेकिन जैसे-जैसे यहां आबादी और भौगोलिक परिवेश बढ़ता गया, उसके बाद लोकसभा की सीट बढ़ाने की मांग भी बढ़ती गई.
1957 में दार्जिलिंग लोकसभा सीट अस्तित्व में आई. पहले कांग्रेसी सांसद थे थयोडोर मेनन. 1962 में जलपाईगुड़ी और रायगंज लोकसभा सीट अस्तित्व में आई. 1962 में जलपाईगुड़ी संसदीय सीट से पहले सांसद थे नलिनी रंजन घोष. जबकि रायगंज की सीट से पहले सांसद चपलाकांता भट्टाचार्य थे. यह भी कांग्रेसी सांसद थे. उस समय पूरे देश में कांग्रेस का बोलबाला था. भारत में आजादी के बाद दशकों तक कांग्रेस का जलवा बरकरार रहा.
1977 में अलीपुरद्वार लोकसभा सीट का गठन हुआ. लेकिन इस सीट से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का सांसद चुना गया.माकपा सांसद का नाम पीयूष तिर्की था. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में भी कई घटक दल थे. उनमें से एक घटक दल का नाम रिवॉल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी आरएसपी था. पीयूष तिर्की आरएसपी के ही टिकट पर चुनाव जीते थे. इलाके में पीयूष तिर्की का काफी नाम था. आरएसपी मजदूरों की पार्टी समझी जाती थी. इसलिए निचले तबके से लेकर मध्यम वर्ग आरएसपी के साथ था.
यही कारण था कि पियूष तिर्की लगातार 5 बार इस क्षेत्र से चुनाव जीतते रहे. वह 1977 से लेकर 1991 तक लगातार पांच बार आरएसपी के टिकट पर चुनाव जीतते रहे. पीयूष तिर्की के बाद 1996 से लेकर 2004 तक जोआकीम बारला इस सीट से सांसद रहे. 2009 में यहां से मनोहर तिर्की सांसद बने. देखा जाए तो शुरू से ही अलीपुरद्वार सीट पर आरएसपी का कब्जा रहा है. यानी वाम मोर्चा यहां से हमेशा चुनाव जीतता रहा है.
लेकिन जब राज्य में सत्ता बदली और तृणमूल कांग्रेस की सरकार बनी, तब यहां से आरएसपी का लगभग सफाया हो गया. 2014 में तृणमूल कांग्रेस ने यहां से दशरथ तिर्की को चुनाव मैदान में उतारा. इसके साथ ही तृणमूल कांग्रेस का खाता खुला. लेकिन 5 साल में ही तृणमूल कांग्रेस ने यह सीट भारतीय जनता पार्टी के हाथों गवा दी. 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार जान वारला यहां से सांसद निर्वाचित हुए. यह बड़े दिलचस्प की बात है कि इस सीट से अब तक कांग्रेस का खाता नहीं खुला है.
2009 में मालदा लोकसभा सीट को दो भागों में बांट दिया गया. मालदा उत्तर और मालदा दक्षिण. चुनाव में मालदा उत्तर से पहले सांसद मौसम बेनजीर नूर थी. जबकि मालदा दक्षिण के पहले सांसद अबू हाशिम खान चौधरी चुने गए थे. इस तरह से देखा जाए तो उत्तर बंगाल की सभी सीटों में दार्जिलिंग लोकसभा सीट सबसे पुरानी सीट है. लेकिन कूच बिहार, मालदा और बालूरघाट से कम पुरानी है. देश की आजादी के बाद हुए पहले लोकसभा चुनाव में कूचबिहार लोकसभा सीट 1951 में जबकि 1 साल बाद मालदा लोकसभा सीट और उसी साल बालूरघाट लोकसभा सीट अस्तित्व में आई थी.
यही तीन लोकसभा की सीट पूरे उत्तर बंगाल में थी. वर्तमान में उत्तर बंगाल में लोकसभा की कुल 8 सीट हैं. इन आठ सीटों में से 7 सीटों पर भाजपा का कब्जा है. जबकि एक सीट पर कांग्रेस जीती है. इस बार के लोकसभा चुनाव में देखना होगा कि क्या भाजपा अपनी लोकसभा सीट बरकरार रख पाती है या फिर तृणमूल कांग्रेस अथवा कांग्रेस का यहां वर्चस्व होता है.
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