हिमालय क्षेत्र में 12000 से ज्यादा छोटे बड़े ग्लेशियर हैं. सिक्किम हिमालय की गोद में बसा है. ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन से लगातार पिघल रहे हैं. इससे बनने वाली ग्लेशियर झील के टूटने का खतरा रहता है. 1985 में नेपाल में दिग तशो झील के टूटने से प्रलय आया था. 1994 में भूटान में लुगे तसो झील के टूटने से भारी आपदा आई थी. जबकि 2013 में केदारनाथ हादसे में 6000 से ज्यादा लोगों की जान गई थी. केदारनाथ हादसा चोराबारी ग्लेशियर टूटने से हुआ था. इससे बहुत बड़ा प्रलय आया था.
सिक्किम में साउथ लहोनक झील ग्लेशियर के पिघलने से निकले पानी से बनी झील है. झील के टूटने से ही सिक्किम में तबाही आई है. यह झील लगभग 168 हेक्टेयर इलाके में फैली थी. इसमें से लगभग 100 हेक्टेयर का इलाका टूटकर खत्म हो गया है. इस झील पर GLOF का खतरा काफी पहले से था. 1921 में रुड़की और बेंगलुरु के वैज्ञानिकों ने इसके टूटने की आशंका जताई थी. लेकिन सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया. पिछले दिनों बादल फटने की वजह से झील में पानी का स्तर बढ़ता चला गया और झील का किनारा टूट गया. इसके बाद पानी, बर्फ और कीचड़ बहकर 62 किलोमीटर दूर चुंगथांग डैम तक पहुंच गया. यह डैम भी पानी का फ्लो बर्दाश्त नहीं कर पाया और टूट गया. इसके बाद चारों तरफ त्राहि ही त्राहि देखी गयी.
साउथ लहोनक झील लगभग 54 फीट ऊंचा है. इसकी गहराई 120 मीटर यानी 394 फीट है. पिछले 4 दशकों से झील 0.10 वर्ग किलोमीटर से लेकर 1.37 वर्ग किलोमीटर की दर से बढ़ती जा रही थी. 2021 में साइंस डायरेक्ट में एक अध्ययन सामग्री छपी थी. इसमें कहा गया था कि अगर GLOF होता है तो यह झील भारी तबाही मचा सकती है. हिमालय के क्षेत्र में बसे अन्य इलाकों में जो भयानक तबाही आई है, इसका कारण ग्लेशियर का पिघलना ही है. यह स्पष्ट हो चुका है.
ग्लेशियर के पिघलने के कई कारण बताए जा रहे हैं. इनमें जलवायु परिवर्तन, कम बर्फबारी, बढ़ता तापमान, लगातार बारिश आदि प्रमुख है. इस लिहाज से सिक्किम काफी संवेदनशील कहा जा सकता है. सिक्किम में 23 से भी ज्यादा ग्लेशियर हैं. देहरादून स्थित वाडिया इंस्टीट्यूट आफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिकों के अध्ययन के अनुसार अन्य हिमालय क्षेत्र की तुलना में सिक्किम के ग्लेशियर बड़े पैमाने पर पिघल रहे हैं. जलवायु परिवर्तन को सिक्किम के ग्लेशियर में हो रहे परिवर्तन का मुख्य कारण पाया गया है. सिक्किम के छोटे आकार के ग्लेशियर पीछे खिसक रहे हैं और बड़े ग्लेशियर पिघलते जा रहे हैं. अध्ययन में पाया गया है कि सिक्किम क्षेत्र के ग्लेशियर विविधता पूर्ण है.
सिक्किम में ग्लेशियर के आकार के साथ ही उनमें हो रहे परिवर्तन तथा अन्य अध्ययनों से पता चलता है कि जलापूर्ति और ग्लेशियर के संभावित खतरे ज्यादा है जिनके बारे में आम जनता और खासकर उन लोगों को सतर्क करने की जरूरत है, जो तीस्ता बेसिन में रहते हैं. सरकार ने भी माना है कि ग्लेशियर के पिघलने से नदियों के बहाव में अंतर आएगा. इसके साथ ही कई तरह की आपदाएं आ सकती हैं. जैसे GLOF, ग्लेशियर एवलांच, हिमस्खलन इत्यादि. यूनिवर्सिटी ऑफ़ लीड्स के वैज्ञानिकों ने हिमालय के 14798 ग्लेशियर की स्टडी की है. उन्होंने बताया है कि छोटे हिमयुग यानि 400 से 700 साल पहले हिमालय के ग्लेशियर की पिघलने की दर बहुत कम थी. पिछले कुछ दशकों में यह 10 गुना ज्यादा गति से पिघल रहे हैं. अध्ययन में कहा गया है कि हिमालय के ग्लेशियर अपना 40% हिस्सा खो चुके हैं.
संसद की स्टैंडिंग कमेटी जांच कर रही है कि किस तरह से ग्लेशियर का प्रबंधन होना चाहिए. इसके साथ ही GLOF को लेकर देश में क्या तैयारी है. जल संसाधन नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय और जियोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया ग्लेशियर के पिघलने की स्टडी कर रहे है. ग्लेशियर पर नजर रखी जा रही है. 9 बड़े ग्लेशियर का अध्ययन हो रहा है. जबकि 76 ग्लेशियर के बढ़ने या घटने पर भी नजर रखी जा रही है. कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि सिक्किम में प्रलय का खतरा खत्म नहीं हुआ है बल्कि आगे भी है.