August 11, 2025
Sevoke Road, Siliguri
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सिलीगुड़ी एवं बंगाल की संस्कृति एवं परंपरा को आघात करती जाति व धर्म की राजनीति!

Politics of caste and religion harming the culture and tradition of Siliguri and Bengal!

क्या नेपाल के लोग नेपाली हैं? क्या दार्जिलिंग,तराई एवं Dooars में बसे गोरखा नेपाली हैं? क्या वे भारतीय नहीं हैं? क्या उन्हें देश में कहीं भी रहने का अधिकार नहीं है? क्या किसी अन्य परदेश से रोजी रोजगार के लिए सिलीगुड़ी और बंगाल आए लोगों को यहां रहने का हक नहीं है? कब तक चलती रहेगी सिलीगुड़ी समेत बंगाल में जाति एवं धर्म की राजनीति?

पिछले कुछ दिनों से सिलीगुड़ी और बंगाल में वो राजनीति की जा रही है, जो बंगाल की राजनीति है ही नहीं. इतिहास गवाह है कि बंगाल में कभी भी धर्म, भाषा एवं जाति के आधार पर राजनीति नहीं हुई है. लेकिन हाल के दिनों में प्रदेश की मुख्यमंत्री के द्वारा भाजपा शासित राज्यों में बांग्ला भाषी लोगों पर कथित रूप से हो रहे हमले को लेकर जो यहां राजनीति शुरू की गई है, उसका असर सिलीगुड़ी और बंगाल में होने लगा है.

सिलीगुड़ी में धर्म, भाषा और जाति की राजनीति का हाल ही में एक नमूना देखा गया है, जब सिलीगुड़ी के हाकिमपाड़ा में घर मालिक और किराएदार के बीच झमेला हुआ था, जिसमें जाति, धर्म एव॔ भाषा को आधार बनाकर सामाजिक एकता को तोड़ने या नुकसान पहुंचाने की कोशिश की गई. इससे पहले दिलीप बर्मन के मामले में भी जाति कार्ड खेलने की कोशिश की गई और राजवंशियों का समर्थन हासिल करने की राजनीति की गई.

पश्चिम बंगाल में 2026 में विधानसभा का चुनाव है. राजनीतिक दल चुनाव में विकास की बात नहीं करते हैं. यहां बिहार और उत्तर प्रदेश की तर्ज पर भाषा, धर्म एवं जाति की राजनीति की जा रही है. मुख्यमंत्री ने बांग्ला भाषा को अपना चुनावी हथियार बनाया है. हाल ही में सिलीगुड़ी नगर निगम ने सभी दुकानों एवं प्रतिष्ठानों के नाम साइन बोर्ड में बांग्ला भाषा में प्रमुखता से रखने का फरमान जारी कर दिया है.

सिलीगुड़ी नगर निगम की तर्ज पर दार्जिलिंग इलाके में GTA ने नेपाली भाषा को अनिवार्य कर दिया है. अब दार्जिलिंग और पहाड़ी इलाकों में दुकानों एवं प्रतिष्ठानों के साइन बोर्ड में सबसे ऊपर नेपाली भाषा में नाम लिखा मिलेगा. वो समय भी दूर नहीं है, जब राजवंशी लोग राजवंशी, आदिवासी संथाली एव॔ सांदड़ी भाषा की अनिवार्यता की मांग उठाएंगे और इस तरह से उत्तर बंगाल और पूरे प्रदेश में विकास नहीं बल्कि भाषा एवं धर्म की लड़ाई लड़ी जाएगी.

राजनेताओं को इस तरह की राजनीति में अपना नफा नुकसान दिखता है. लेकिन उन्हें यह नहीं दिखता कि इससे प्रदेश की संस्कृति, एकता, सहयोग एवं उदारवादी परंपरा धूल धूसरित हो रही है. बंगाल जिसके लिए जाना जाता है, उसके विपरीत यहां आचरण शुरू हो चुका है. ऐसा नहीं है कि राजनेताओं को बंगाल की संस्कृति एवं परंपरा का पता नहीं है. हाकिम पाड़ा कांड को लेकर सिलीगुड़ी नगर निगम के मेयर गौतम देव ने एक बयान दिया था कि बंगाल किसी एक व्यक्ति, जाति एवं धर्म का नहीं है. बंगाल की परंपरा एवं ऐतिहासिकता सभी को साथ लेकर चलने की है. लेकिन क्या ऐसा हो रहा है?

हाल ही में सिलीगुड़ी के लोगों ने देखा है कि कैसे-कैसे लोगों के बोल सामने आए. नेपाल के हो तो बंगाल में तुम्हारा क्या काम है, नेपाल चले जाओ. बिहार के हो तो बिहार चले जाओ… आश्चर्य की बात है कि हमारे राजनेताओं को ऐसी बोली और समाज को तोड़ने वाली बातों का समर्थन नहीं करना चाहिए. लेकिन उनके पत्रों एवं बयान से पता चलता है कि वह भी कहीं ना कहीं बंगाल एवं राष्ट्र को कमजोर करने वाली नीति का समर्थन कर रहे हैं और यह सब हो रहा है मतदाताओं को नाराज नहीं करने के लिए.

कोई भी राजनीतिक दल, कोई भी राजनेता, उदारता और एकता की पहल नहीं करता है. सिलीगुड़ी ने इसका नमूना देखा है. वह चाहे सिलीगुड़ी के विधायक शंकर घोष हो या दार्जिलिंग पहाड़ के नेता जैसे बी पी बजगई, अनित थापा, दार्जिलिंग के विधायक नीरज जिंबा इत्यादि. उनके बयान और पत्रों की भाषा से पता चलता है कि धर्म और जाति की राजनीति से कोई भी ऊपर नहीं है. यह सब क्या कम था कि ऊपर से ममता बनर्जी की सरकार ने एक और फरमान जारी कर राज्य के सभी सिनेमाघरों को कम से कम एक शो बांग्ला फिल्मों के लिए आरक्षित रखना अनिवार्य कर दिया है.

हालांकि इसका कारण बताया जा रहा है कि बंगाल में दक्षिण भारतीय फिल्मों की बढ़ती मांग के कारण बंगाल के सिनेमाघरों में बांग्ला फिल्मों के शो नहीं चल रहे हैं. इससे बांग्ला फिल्मों की कमाई पर असर पड़ा है. बांग्ला फिल्म और बांग्ला भाषा को जीवंत रखने के लिए सरकार ने यह कदम उठाया है. सवाल यह है कि जब सिलीगुड़ी में बांग्ला, दार्जिलिंग में नेपाली, प्रदेश के सभी सिनेमा घरों में बांग्ला फिल्म का शो चलना अनिवार्य किया जाता हो, ऐसी स्थिति में बंगाली संस्कृति एवं परंपरा क्या जीवंत रह पाएगी?

हमारे नेता कब जागेंगे? अगर ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब बंगाल की माटी की परंपरा देश के दूसरे राज्यों से अलग नहीं होगी. इसलिए जितना जल्दी हो सके, ऐसी बेतुकी राजनीति बंद करके विकास एवं सर्वधर्म समभाव की राजनीति की जाए.

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