दार्जिलिंग पहाड़ के नेताओं में नामदार विमल गुरुंग की नई रणनीति व नई राजनीतिक चाल सुर्खियों में है. विश्लेषकों की माने तो यह बूढा शेर पहाड़ के विभिन्न क्षेत्रीय राजनीतिक संगठनों के नेताओं को एकजुट करने और उनका समर्थन पाने की एक नई रणनीति बना रहा है. पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 2026 में पहाड़ की तीनों सीटों पर उनकी पार्टी का कब्जा हो, इसी रणनीति के तहत उनकी राजनीति चल रही है. हालांकि इसमें वे कहां तक कामयाब होंगे, यह तो वक्त ही बताएगा!
पहाड़ के क्षेत्रीय राजनीतिक संगठनों के नेताओं के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि चुनाव नजदीक आते ही वे सक्रिय हो जाते हैं. पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव निकट आते ही विमल गुरुंग ने पहाड़ में अपनी खोई हुई राजनीतिक ताकत वापस पाने के लिए प्रयास शुरू कर दिए हैं. इन दिनों विमल गुरुंग पहाड़ में राजनीतिक सभाएं और रैलियां कर रहे हैं तथा पहाड़ के लोगों से अपील कर रहे हैं कि उन्हें आने वाले विधानसभा चुनाव में एक मौका दिया जाए. हालांकि विमल गुरुंग स्वयं चुनाव लड़ेंगे या अपने उम्मीदवार देंगे, यह स्पष्ट नहीं हो सका है.
परंतु पहाड़ में विभिन्न राजनीतिक संगठनों में यह चर्चा शुरू हो गई है कि आखिर चुनाव निकट आते ही विमल गुरुंग की राजनीतिक गहमागहमी क्यों बढ़ जाती है! जो लोग पहाड़ की राजनीति को अच्छी तरह समझते हैं, उन्हें यह भी पता है कि ऐन चुनाव के मौके पर कुकुरमुत्ते की तरह कई राजनीतिक संगठन सक्रिय हो जाते हैं, जिनका बहुधा यही उद्देश्य होता है कि राष्ट्रीय अथवा क्षेत्रीय पार्टियों से सांठ गांठ बढ़ाकर अपना उल्लू सीधा कर सकें. हालांकि विमल गुरुंग और उनके राजनीतिक संगठन के बारे में शायद ऐसा कहना ठीक नहीं होगा.
. क्योंकि शेर बूढ़ा भी हो जाए तब भी वह शेर ही कहलाता है. किसी समय गोरखा जन मुक्ति मोर्चा सुप्रीमो विमल गुरुंग की पहाड़ में तूती बोलती थी. 2007 से लेकर 2017 तक विमल गुरुंग दार्जिलिंग पहाड़ में सत्ता के केंद्र रहे. जब यहां गोरखालैंड आंदोलन उत्कर्ष पर था. तब पहाड़ का बच्चा-बच्चा विमल गुरुंग को जानता था. लेकिन इसके बाद विमल गुरुंग की राजनीतिक ताकत कमजोर होती चली गई और उनकी जमीन खिसकती चली गई.
वर्तमान में विमल गुरुंग अपनी खोई हुई जमीन वापस पाने के लिए पूरे पहाड़ का दौरा कर रहे हैं और अपने संगठन को मजबूत कर रहे हैं. पहाड़ का दिल जीतने के लिए उन्होंने एक नई राजनीति शुरू की है. वह पहाड़ के सभी राजनीतिक संगठनों को साथ लेकर चलना चाहते हैं और केंद्र सरकार तथा भाजपा से मिलकर अपनी रणनीति को अंजाम दे रहे हैं. पहाड़ की समस्याओं के संपूर्ण राजनीतिक समाधान के लिए भाजपा और केंद्र सरकार ने एक वार्ताकार की नियुक्ति की है. विमल गुरुंग इस मुद्दे पर केंद्र सरकार के साथ वार्ता से पहले पहाड़ के क्षेत्रीय संगठनों के नेताओं के साथ एक बैठक के बहाने वे अपनी ताकत दिखाना चाहते हैं.
सर्वदलीय बैठक की तारीख भी निर्धारित कर ली गई है. यह बैठक 9 नवंबर को दार्जिलिंग के गोरखा दुख निवारण हाल में होने वाली है. सर्वदलीय बैठक में शामिल होने के लिए यहां के राजनीतिक संगठनों के नेताओं को आमंत्रण दिया गया है. गोरखा नेता इस मुद्दे पर विमल गुरुंग के साथ नजर आते हैं. क्योंकि उन्हें लगता है कि यह समय गोरखा एकता का है. अगर बटेंगे तो कटेंगे. इसलिए भले ही दूसरे राजनीतिक संगठनों के नेता विमल गुरुंग से नाराज हों, परंतु वे खुलकर अपनी नाराजगी व्यक्त करना नहीं चाहते. कई क्षेत्रीय नेता तो उनका साथ देने की इच्छा रख रहे हैं.
पूरे पहाड़ में विधानसभा की तीन सीटे हैं. दार्जिलिंग, कर्सियांग और कालिमपोंग. लेकिन इन तीनों ही विधानसभा सीटों में विमल गुरुंग की पार्टी के पास कोई भी सीट नहीं है. दार्जिलिंग और कर्सियांग विधानसभा सीट पर भाजपा का कब्जा है. जबकि कालिमपोंग सीट पर अनित थापा की पार्टी भारतीय गोरखा प्रजातांत्रिक मोर्चा का कब्जा है. जबकि एक समय था, जब विमल गुरुंग की पार्टी का तीनों ही सीटों पर कब्जा होता था. उन दिनों जीटीए विमल गुरुंग की मर्जी से ही चलता था. पर सब दिन एक समान नहीं होते हैं.
विमल गुरुंग चाहते हैं कि उनके पुराने दिन वापस लौट जाएं और इसीलिए वे पहाड़ में अपनी खोई हुई ताकत वापस पाने के लिए राजनीतिक योजना को अंजाम दे रहे हैं. विमल गुरुंग को यह अच्छी तरह पता है कि केंद्र सरकार और भाजपा के साथ मिलकर ही पहाड़ की समस्या का स्थाई राजनीतिक समाधान निकल सकता है. इसलिए वह टीएमसी से ज्यादा भाजपा को महत्व देते हैं. अगर उनके प्रयास से केंद्र सरकार पहाड़ की समस्याओं का स्थाई राजनीतिक समाधान ढूंढ लेती है अथवा इसमें प्रगति आती है तो इसका श्रेय विमल गुरुंग को ही जाएगा. ऐसे में पहाड़ में विमल गुरुंग की ताकत खुद ही बढ़ जाएगी.
भाजपा भी विमल गुरुंग को अनदेखा नहीं कर सकती. दार्जिलिंग के भाजपा सांसद राजू बिष्ट विमल गुरुंग को अपना राजनीतिक गुरु मानते हैं. इसलिए पहाड़ की समस्या के स्थाई राजनीतिक समाधान की दिशा में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है तो इसका श्रेय विमल गुरुंग को ही जाएगा. लेकिन विमल गुरुंग को भाजपा के अलावा पहाड़ के अन्य क्षेत्रीय संगठनों जैसे जीएनएलएफ, सीपीआरएम, अखिल भारतीय गोरखा लीग आदि की मदद की भी आवश्यकता है. देखना होगा कि 9 नवंबर को दार्जिलिंग में होने वाली सर्वदलीय बैठक में विमल गुरुंग को अन्य क्षेत्रीय संगठनों के नेताओं से कितना सहयोग मिलता है. इसी पर उनके भविष्य की राजनीति की दिशा और दशा तय होगी!
