पहाड़ बंद से किसको क्या और कितना नुकसान हुआ? इससे बड़ी और महत्वपूर्ण बात तो यह है कि चाय बागान श्रमिकों को क्या लाभ हुआ? क्योंकि यह बंद श्रमिकों की 8 यूनियनों ने बुलाया था. खुद को चाय श्रमिकों के हक और न्याय के लिए संघर्ष करने का बढ़ चढ़कर दावा करने वाली पहाड़ की राजनीतिक पार्टियों के द्वारा बंद का समर्थन किया गया था. मजे की बात तो यह है कि जो पार्टी चाय श्रमिकों को उनका हक दिला सकती है, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया और खुद को चाय श्रमिकों के साथ होने का दिखावा करने के लिए बंद का समर्थन किया. पहाड़ बंद से हुए नुकसान का अभी तक आकलन नहीं किया जा सका है. पर श्रमिक संगठनों का दावा है कि पहाड़ अचल हो गया. लेकिन मूल सवाल है कि चाय श्रमिकों को मिला क्या.
पहाड़ के चाय बागानों के श्रमिक 20% बोनस की मांग कर रहे हैं. इसके लिए कई बार दागापुर स्थित श्रमिक भवन में मालिक पक्ष, राज्य सरकार के प्रतिनिधि ,श्रमिक यूनियनों और राजनीतिक संगठनों के प्रतिनिधियों के बीच बैठक हो चुकी है. रविवार को चौथी त्रिपक्षीय बैठक हुई थी. लेकिन इसमें भी कोई फैसला नहीं हुआ. वहीं तराई डुआर्स के चाय बागानों के श्रमिक मालिक पक्ष के द्वारा 16% बोनस दिए जाने पर सहमत हो चुके हैं. सारा पेच पहाड़ के चाय बागानों पर ही फंसा है. जानकार मानते हैं कि अगर राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप नहीं होता तो पहाड़ का मसला अब तक हल हो चुका होता.लेकिन जानबूझकर इस मसले का हल होने नहीं दिया जा रहा है.
दार्जिलिंग, समतल और डुआर्स में चाय बगानों की एक लंबी श्रृंखला है. उत्तर बंगाल चाय बागानों के लिए ही जाना जाता है. यहां की चाय विदेशों में भेजी जाती है. लेकिन जो श्रमिक इस पूरी प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, उनकी मजदूरी एक अकुशल श्रमिक की दिहाड़ी से भी कम होती है. उनका वेतन इतना मामूली होता है कि महीने में काटकर जितना पैसा मिलता है, उससे उनका घर परिवार चलाना मुश्किल हो जाता है. ले देकर एक बोनस ही रहता है, जो उनके परिवार को कम से कम 1 महीने के लिए खुशियां दे सकता है.
बोनस चाय श्रमिकों का हक भी है. इसी बोनस के लिए चाय श्रमिकों ने काफी कुर्बानियां दी है. देश की आजादी के बाद से ही चाय श्रमिकों को बोनस मिलते आ रहा है. इस बोनस की शुरुआत 25 जून 1955 को हुई थी, जब मारग्रेट होप टी एस्टेट में चाय श्रमिक अपनी विभिन्न मांगों को लेकर एकत्र हुए थे. कहा जाता है कि बागान मालिक चाय श्रमिकों की आवाज के आगे घुटने टेकने पर मजबूर हो गए. लगभग 20000 चाय श्रमिकों तथा उनके समर्थन में स्थानीय लोगों ने धरना प्रदर्शन शुरू किया था. आंदोलन को कुचलने के लिए महिला चाय श्रमिकों पर गोलियां चलाई गई. कई लोग इसमें शहीद हुए. लेकिन यह आंदोलन नहीं रुका.
आखिरकार बागान अधिकारियों को चाय श्रमिकों की मांगों को मानना पड़ा. उसी समय से चाय उद्योग के इतिहास में बोनस की शुरुआत हुई. साल भर मेहनत मजदूरी करने वाले यह चाय श्रमिक इसी उम्मीद में जीते हैं कि उन्हें इतना बोनस मिल जाए कि उनके बच्चों को नए वस्त्र और पूजा घूमने के लिए कुछ रूपए पैसे दे सके. परंतु चाय बागानों के श्रमिकों की जरूरत को समझने की बजाय लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने लग जाती हैं.
वर्तमान में पहाड़ में जो कुछ भी चल रहा है, वह श्रमिकों के हित में कम ज्यादातर राजनीतिक संगठनों के हित में है. ऐसा भी देखा गया है कि अधिक बोनस की मांग करने वाले चाय श्रमिकों को बोनस तो नहीं मिला, अपितु चाय बागान ही बंद हो गए. मौजूदा हालात यह है कि कई चाय बागानों के प्रबंधक और मालिक घाटे में है. उन्हें फैक्ट्री चलाना मुश्किल हो रहा है. यही कारण है कि उत्तर बंगाल के अधिकांश चाय बागानों की फैक्ट्रियां बंद हो चुकी है. सरकार मालिकों पर भी दबाव नहीं डाल सकती. इस बात को राजनीतिक पार्टियां भी समझती है. लेकिन उन्हें राजनीति चाय बागान श्रमिकों के कंधे पर बंदूक रखकर करनी होती है. इसलिए वे इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाते हैं और इसका अंजाम चाय श्रमिकों को ही भुगतना होता है. अब तक के इतिहास से यह साबित भी हो चुका है.
अगर इस पूरे मुद्दे पर गहराई से अध्ययन किया जाए तो यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है, जिसका हल नहीं किया जा सकता है. लेकिन राजनीतिक पार्टियों के नेता जानबूझकर इस मसले को लटकाना चाहते हैं. क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर चाय बागान श्रमिकों का मुद्दा हल हो गया तो राजनीति करने के लिए उनके पास और कुछ नहीं बचेगा. चाहे वह विमल गुरुंग की पार्टी गोरखा जनमुक्ति मोर्चा हो अथवा अनित थापा की भारतीय गोरखा प्रजातांत्रिक मोर्चा या अजय एडवर्ड की हाम्रो पार्टी, सभी इस पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकना चाहते हैं. इसका चाय बागान के श्रमिकों को कोई लाभ हो या ना हो, परंतु इससे उनकी परेशानी और ज्यादा बढ़ जाती है.
राज्य सरकार इस पर कुछ कर सकती थी. लेकिन मुख्यमंत्री ममता बनर्जी चाय बागान के श्रमिकों के बोनस के मुद्दे पर खुलकर कुछ कहना नहीं चाहती है और इसे श्रम विभाग का मसला बता कर किनारा हो गई है. उन्होंने बंद का समर्थन भी नहीं किया था. दूसरी तरफ तृणमूल कांग्रेस के ही घटक दल के रूप में चर्चित पहाड़ की भारतीय गोरखा प्रजातांत्रिक मोर्चा और उनके नेता अनित थापा के कार्यकर्ताओं ने बंद का समर्थन किया. सवाल यह है कि क्या अनित थापा चाय बागान श्रमिकों के मसले का हल नहीं कर सकते हैं? इस पूरे प्रकरण में एक बात जो समझ में आती है, वह यह है कि अगर राजनीतिक दल सचमुच चाय बागान श्रमिकों के हित की बात करते हैं तो इस पर अविलंब राजनीति बंद करके पूरा मसला हिल प्लांटेशन एम्पलाइज यूनियन के सुपुर्द कर देना चाहिए. तभी चाय बागान श्रमिकों को उनका हक भी मिलेगा और उन्हें खुशियां भी मिलेगी.
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