दार्जिलिंग पहाड़ के क्षेत्रीय दलों की राजनीति गोरखालैंड से शुरू होती है और हवा के रुख को भांपते हुए समय और स्थान के अनुसार बदलती जाती है. पहाड़ में जितने भी क्षेत्रीय दल हैं, हालांकि उनकी पार्टी गोरखालैंड की बात करती है. पर जब समय आता है तो सत्ता में बने रहने के लिए कुछ दलों के समझौते कर लेने में भी उन्हें कोई बुराई नजर नहीं आती है. गोरखालैंड का मायने राष्ट्रीयता यानी देश भक्ति और देशभक्ति का मतलब भारत और भारतीयता में जीना.
यही कारण है कि चाहे समय कोई भी रहा हो, लोकसभा के चुनाव में हमेशा राष्ट्रीय दल ही विजयी रहा है. आज बहुत से छोटे-छोटे दल पहाड़ में उभर रहे हैं और अपना स्थान बनाने के लिए अपनी राजनीति की रणनीति बदल रहे हैं. कुछ छोटे दलों के लिए गोरखालैंड से महत्वपूर्ण अपना उल्लू सीधा करना होता है. वह चुनाव में बड़े राष्ट्रीय दलों से सौदेबाजी करते हैं और उन पर दबाव डालते हैं. खैर यह सब बातें इसलिए हो रही है कि आने वाले समय में ऐसी राजनीति भी देखने को मिल सकती है.
क्योंकि अब वह समय रहा नहीं, जब दार्जिलिंग पहाड़ पर सुभाष घीसिंग का एकछत्र राज्य हुआ करता था. वह लाल कोठी में रहकर फैसले करते थे. उनका फैसला अकाट्य होता था. सरकार आसानी से उसे इग्नोर नहीं कर सकती थी.खैर, जैसे-जैसे 2026 का पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव निकट आता जा रहा है, अगर राज्य में समतल में कोई बड़ी हलचल होती हो या नहीं, परंतु पहाड़ और खासकर दार्जिलिंग की राजनीति में एक जलजला आने वाला है. इसका टीजर भाजपा के अत्यंत करीबी और उनके अनुसार 2009 से ही पहाड़ में भाजपा का साथ देते आ रहे गोरखा जन मुक्ति मोर्चा के नेता विमल गुरुंग ने शहीद दिवस पर आयोजित सम्मेलन में दे दिया है. इसका आयोजन गोरखा दुख निवारण सम्मेलन हाल में हुआ था.
विमल गुरुंग हाल ही में दिल्ली से लौटकर आए हैं. दिल्ली में शायद उनके मन की बात नहीं हुई है. इसलिए वे भिन्नाए हुए हैं और भाजपा पर आक्रामकता दिखा रहे हैं. विमल गुरुंग को इस बात का दुख है कि भाजपा ने पहाड़ के गोरखाओं के लिए अब तक कुछ नहीं किया है. चाहे वह परमानेंट राजनीतिक समाधान की बात हो या फिर छठी अनुसूची का मुद्दा, छूटे हुए गोरखा समुदायों को आदिवासी का दर्जा दिलाने और इसका कार्यान्वयन समेत सभी मुद्दे अधूरे हैं. उन्होंने कहा कि त्रिपक्षीय वार्ता में भी अभी तक कोई प्रगति नहीं हुई है.
विमल गुरुंग ने कहा कि अगर इस साल के आखिर तक गोरखाओं के मुद्दे का कोई ठोस समाधान नहीं निकला तो उनकी पार्टी भाजपा से नाता तोड़ लेगी. इसका विधानसभा के चुनाव में भाजपा को खामियाजा भुगतना होगा. लेकिन तब भाजपा के पास वक्त नहीं होगा और वे अपनी भावी रणनीति का ऐलान कर देंगे. विमल गुरुंग भारतीय गोरखा जनशक्ति मोर्चा के अध्यक्ष अजय एडवर्ड को भी अपने मिशन में साथ लाना चाहते हैं. वह कहते हैं कि अगर आपको गोरखाओं के लिए काम करना है तो साथ आ जाइए. नेतृत्व करिए. रास्ता हम दिखाएंगे.
विमल गुरुंग जीटीए के चीफ अनित थापा को आइना दिखाना चाहते हैं. वे कहते हैं कि कुर्सी की लड़ाई चलती रहेगी.लेकिन गोरखालैंड के मुद्दे पर अपनी डफली अपना राग बजाने का समय नहीं है. कुर्सी का मोह रखने से गोरखालैंड कभी सफल नहीं हो सकता है. हालांकि सुभाष घीसिंग के पुत्र मन घीसिंग उतने उतावले नहीं है और धैर्य के साथ भाजपा के संकल्प पूरा होने का इंतजार कर रहे हैं. वे किसी तरह के आंदोलन के पक्ष में नहीं है. वे चाहते हैं कि बातचीत से रास्ता निकले और केंद्र सरकार पहल करे. हालांकि केंद्र सरकार से वे भी थोड़े नाराज हैं.
बड़ा अच्छा लगता है जब साल के एक दिन पहाड़ के क्षेत्रीय नेता गोरखालैंड और राष्ट्रीयता की बात करते हैं. यहां हर साल 27 जुलाई को शहीद दिवस का आयोजन होता है. आपको बता दें कि 27 जुलाई 1980 को, 1950 भारत नेपाल संधि के विरोध में कलिंपोंग के 9 माइल स्थित इंजन दारा में जीएनएलएफ कार्यकर्ताओं तथा पुलिस के बीच भारी हिंसा हुई थी. इसमें जीएनएलएफ के 13 कार्यकर्ता शहीद हो गए थे. उसी समय से पहाड में शहीद दिवस का आयोजन होता आ रहा है.
गोरखालैंड आंदोलन के दौरान पहाड़ में 1200 से भी ज्यादा लोग शहीद हुए थे. उन सभी शहीदों को शहीद दिवस के दिन श्रद्धांजलि दी जाती है और गोरखालैंड को याद किया जाता है. लेकिन सिर्फ एक दिन. क्योंकि उसके बाद से नेताओं को अपनी डफली अपना राग बजाने पर मजबूर होना पड़ता है. राजनीति में नफा और नुकसान देखा जाता है.जो भी हो, आगे आगे देखिए पहाड़ में क्या-क्या होता है. आज विमल गुरुंग ने भाजपा से नाता तोड़ने की बात कही है. दबाव की राजनीति दूसरे दल भी बनाएंगे जो आज पहाड़ की सत्ता में है. दिसंबर आते-आते पहाड़ की राजनीति खासी दिलचस्प हो जाएगी, इसमें कोई संदेह नहीं है.