सिक्किम की आपदा ने तन मन को झंझोर कर रख देने वाली ऐसी सैकड़ो कहानियों को जन्म दिया है, जिसे सुनकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं. यह वह कहानी है, जिसकी रचना कुदरत ने की और उस कहानी का अंत भी कुदरत ने ही किया है. उत्तर बंगाल के सबसे लोकप्रिय वेब पोर्टल खबर समय ने ग्राउंड जीरो पर जाकर आपदा पीड़ितों से मुलाकात की और उनका दर्द जानने की कोशिश की है. हम प्रस्तुत कर रहे हैं तीस्ता बाजार के अन्य आपदा पीड़ितों की दास्तान. सुनिए आपदा की कहानी उनकी ही जुबानी…
तीस्ता बाजार में तीस्ता नदी के किनारे अनेक छोटे बड़े मकान थे, जिनमें बरसों से लोग अपने परिवार के साथ हंसी खुशी रह रहे थे. आज वहां कई मकानों के अवशेष नजर आते हैं. कुछ गिने चुने मकान जरूर है, लेकिन उनकी भी रंगत उतरी हुई है. भीतर से कमजोर लेकिन बाहर से ठीक-ठाक. ठीक उस महिला की तरह जो अपना सब कुछ लुटा कर भी खड़ी नजर आ रही है. अंदर से काफी कमजोर ऐसे जैसे कि वह अभी टूट जाएंगी.
एक पीड़ित महिला 4 अक्टूबर की त्रासदी को याद करते कांप उठती हैं. महिला ने बताया कि जब सैलाब आया, तब हमें संभलने तक का मौका नहीं दिया. अलार्म बजते ही जैसे तैसे अपने परिवार को घर से निकाल कर सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया. लेकिन उसके बाद मकान में रखा सारा कुछ खत्म हो गया. घर से कुछ भी सामान निकालने का वक्त नहीं मिला. जब सैलाब आया तो मकान भी जमीनदोज हो गया. यह वह मकान था, जिसने पूर्व में भी काफी झंझावात सहे थे. भूकंप, वर्षा, भूस्खलन की मार के बावजूद खड़ा था. लेकिन इस सैलाब को सहन नहीं कर सका और धराशाई हो गया. वर्षों की मेहनत से कमा कर खरीदे गए सामान सब कुदरत की भेंट चढ़ गए. सैलाब का रेला आया और देखते-देखते सब कुछ खत्म हो गया.
एक अन्य पीड़ित महिला ने बताया कि सिक्किम में 1968 के बाद यह पहली त्रासदी थी. इसकी कल्पना किसी ने भी नहीं की थी. महिला ने बताया कि राज्यपाल महोदय उनका दुखड़ा सुनने के लिए आए थे. काफी भीड़ थी. भारी संख्या में सुरक्षा गार्ड थे. लेकिन वह हिंदी में बात कर रहे थे. इसलिए हम उनकी बात को अच्छी तरह समझ नहीं पाये. हमारी सरकार से फरियाद है कि हमारे रहने के लिए रोटी, कपड़ा और मकान की सुविधा दी जाए.
तीस्ता बाजार में अनेक ऐसे पीड़ित परिवार हैं, जो हर आते जाते लोगों को उम्मीद भरी नजरों से देखते हैं. शायद कहीं से मदद मिल जाए. सामाजिक संगठन और अन्य संस्थाओं के जरिए मदद तो आती है, लेकिन ऊंट के मुंह में जीरे के समान. बच्चे एक तरफ खेल रहे हैं. उन्हें क्या पता कि त्रासदी क्या होती है. तीस्ता बाजार के कई परिवार ऐसे हैं जिन्होंने काफी कुछ खोया है. इस सदमे से उबरने में उन्हें वक्त लगेगा.
तीस्ता बाजार के पीड़ित परिवारों की दास्तान काफी लंबी है. सबकी अपनी अलग-अलग व्यथा है. भीतर से टूटे हुए लेकिन चेहरे पर जबरदस्ती की मुस्कान और दिमाग में भविष्य की चिंता साफ उनकी आंखों से झलकती है. बच्चों को चिंता नहीं है कि उनके बस्ते तीस्ता में समा गए. चिंता तो बड़ों की है कि फिर से बच्चों को बस्ते देने होगे. और इसके लिए उन्हें काफी मदद की जरूरत है. पीड़ित के लिए रोटी और कपड़ा सिक्किम सरकार से लेकर सभी दिशाओं से मिल रहा है. लेकिन मकान नहीं. घर तो घर होता है. कब तक राहत शिविरों में अपना दिन गुजारते रहेंगे. इसका जवाब किसी के पास नहीं है.
सवाल यह है कि पीड़ितो के जख्मों पर कौन मलहम लगाएगा? उनका भविष्य कौन सुरक्षित करेगा? उनकी आंखों में जो प्रश्न चिन्ह नजर आ रहे हैं,उसके समाधान का कौन प्रयास करेगा? नेता, मंत्री आते रहेंगे. जाते रहेंगे. अब तक तो कुछ नहीं हुआ. भविष्य में भी कुछ नहीं होगा. यह बात पीड़ित परिवार भी जानता है. पीड़ित परिवार को खुद ही उद्यम, परिश्रम और मेहनत करनी होगी और फिर से अपने जीवन को पटरी पर लाना होगा. अब तो इसी उम्मीद और विश्वास के सहारे ही नैया पार लगानी होगी.. यही सच है और इस सच को स्वीकार करना ही होगा.