मजिस्ट्रेट द्वारा माफीनामा जारी करने के बाद यह समझा जा रहा है कि पिछले दो दिनों से कोर्ट में नेपाली भाषा को लेकर चल रहा आंदोलन और प्रदर्शन थम जाएगा. क्योंकि विभिन्न संगठनों और बार एसोसिएशन के द्वारा मजिस्ट्रेट के माफी मांगने की मांग की गई थी. चौतरफा दबाव बढ़ने के बाद मजिस्ट्रेट ने माफी मांग ली है. आखिर न्यायिक मजिस्ट्रेट अलकनंदा सरकार ने यह फैसला क्यों लिया, सूत्रों ने बताया कि इसके पीछे राज्य सरकार का दबाव, गोरखा संघर्ष, संगठनों की चेतावनी और बार एसोसिएशन द्वारा काम बंद आंदोलन रहा है.
एक तरफ सिलीगुड़ी और पूरे बंगाल में बांग्ला भाषा की अनिवार्यता को लेकर स्थानीय कुछ बांग्ला संगठन खुलेआम उधम मचाए हुए हैं, तो दूसरी तरफ पहाड़ में नेपाली भाषा को नेपाल की भाषा बताने पर संग्राम छिड़ गया है. जिस मजिस्ट्रेट ने नेपाली भाषा को नेपाल की भाषा बता कर अदालती कार्यों में इसका प्रयोग नहीं करने दिया, उनके बयान को लेकर पूरा पहाड़ एकजुट हो गया है. इस मुद्दे पर जीटीए से लेकर विपक्षी संगठन भी मजिस्ट्रेट के माफी मांगने और उनके तबादले की मांग कर रहे हैं. अंततः मजिस्ट्रेट अलकनंदा सरकार को गोरखा समुदाय से लिखित रूप में माफी मांगनी पड़ी है.
कल तक पहाड़ से लेकर समतल तक सुलग रहा था. पहाड़ के साथ-साथ सिलीगुड़ी कोर्ट परिसर में भी कर्मचारियों ने धरना प्रदर्शन किया और मजिस्ट्रेट के माफी मांगने और तबादले की मांग की थी. पिछले दिनों म॔गपू की अदालत में जब एक वकील ने नेपाली भाषा में दलील रखनी चाही, तो मजिस्ट्रेट ने उन्हें नेपाली भाषा में बोलने से मना किया और कहा कि यह नेपाल की भाषा है. GTA के चेयरमैन अनित थापा ने इस मुद्दे को लेकर अपना कड़ा विरोध जताया और राज्य के विधि मंत्री से मिलकर ज्ञापन दिया था.
दार्जिलिंग के भाजपा सांसद राजू बिष्ट ने एक प्रेस विज्ञप्ति के द्वारा मजिस्ट्रेट के बयान की कड़ी निंदा की थी. उन्होंने कहा था कि नेपाली भाषा संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल है. इसलिए इस तरह का भेदभाव स्वीकार नहीं किया जा सकता है. उन्होंने मंगपु अदालत के बयान और सिक्किम विश्वविद्यालय में ‘यह नेपाल है क्या’ जैसी टिप्पणी करने वाले छात्र को अज्ञानी और खतरनाक मानसिकता का प्रतीक बताया. हालांकि सिक्किम में विरोध बढ़ने पर बाद में छात्र ने अपने बयान को लेकर माफी भी मांग ली थी.
धीरे-धीरे इस मुद्दे को लेकर पहाड़ सुलगने लगा था. भाषा को लेकर पूरे पहाड़ पर वकीलों ने अदालती कार्यों का बहिष्कार कर दिया . जबकि राजनीतिक हलचल इस कदर बढ़ गई है कि विभिन्न क्षेत्रीय संगठनों के द्वारा इसका पुरजोर विरोध किया जा रहा था. इंडियन गोरखा जनशक्ति फ्रंट ने पिछले दिनों चौक बाजार में पोस्टर लगाकर मजिस्ट्रेट के बयान का विरोध किया. दूसरी तरफ मजिस्ट्रेट के इस बयान के खिलाफ सिलीगुड़ी से लेकर दार्जिलिंग, कर्सियांग, कालिमपोंग और मिरिक में वकील एकजुट हो गए . इस बयान को नेपाली भाषा और गोरखा समुदाय की अस्मिता पर हमला करार दिया गया .
कुछ दिन पहले ही सिलीगुड़ी में गोरखा समुदाय की छात्राओं पर टिप्पणी करने से शुरू हुआ विवाद अदालत तक पहुंच गया . गोरखा समुदाय के लोगों का आक्रोश लगातार बढ़ रहा था, जो कि स्वाभाविक भी है. क्योंकि नेपाली भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है. जिस गोरखा समुदाय से बड़े-बड़े स्वतंत्रता सेनानी आते हैं और उन्होंने भारत की एकता और अखंडता के लिए अपने प्राण उत्सर्ग कर दिए, जिस गोरखा की नेपाली भाषा को भारत सरकार संविधान में अनुसूचित करती है, वहीं अदालत में नेपाली भाषा की तौहीन करना किसी भी तरह से उचित नहीं कहा जा सकता है.
मजिस्ट्रेट के नेपाली भाषा को लेकर दिए गए बयान के बाद पहाड़ के विभिन्न बार संगठनों, नेताओं और राजनेताओं के बयान सामने आने लगे थे. अनित थापा ने कहा कि नेपाली भाषा हमारी मातृभाषा है. इस तरह का बयान ऐतिहासिक संदर्भों और समुदाय की भावनाओं को आहत करता है. कर्सियांग बार एसोसिएशन ने मजिस्ट्रेट के बयान को गैर जिम्मेदाराना और शर्मनाक बताया . एसोसिएशन ने कहा कि यह गोरखा समुदाय की भावनाओं को आहत करता है. इसी तरह से मंगपू बार एसोसिएशन ने मजिस्ट्रेट से सार्वजनिक माफी मांगने और उनके तबादले की मांग की थी.
इस मुद्दे को लेकर चारों तरफ से विरोध प्रदर्शन के बाद मंत्री मलय घटक ने इसको गंभीरता से लिया और कोलकाता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और महापंजीयक को पत्र लिखा . उन्होंने इस पर तत्काल कार्रवाई का अनुरोध किया . उन्होंने अपने पत्र में लिखा कि नेपाली भाषा संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल है और दार्जिलिंग की अदालतों की आधिकारिक भाषा भी है. इस तरह से चौतरफा दबाव के बाद न्यायिक मजिस्ट्रेट अलकनंदा सरकार को माफी मांगनी पड़ी. उन्होंने गोरखा समुदाय को आश्वस्त किया है कि वह म॔गपू अदालत में आगे कार्य नहीं करेंगे.
अब देखना होगा कि न्यायिक मजिस्ट्रेट के माफी मांग लेने से इस विवाद का अंत होता है या नहीं.