भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा द्वारा सिक्किम में क्षेत्रीय राजनीति और क्षेत्रवाद के खात्मे की बात कहे जाने के बाद सिक्किम में एक तरफ क्षेत्रीय दलों के नेता इस पर आलोचना करने लगे हैं तो दूसरी तरफ दार्जिलिंग पहाड़ में कुछ क्षेत्रीय दलों के नेता जेपी नड्डा के बयान पर तीखी प्रतिक्रिया दे रहे हैं. इनमें से भारतीय गोरखा प्रजातांत्रिक मोर्चा के अध्यक्ष अनित थापा भी शामिल हैं.
अनित थापा कहते हैं कि पहाड़ के क्षेत्रीय दलों को समझ लेना चाहिए कि बड़ी पार्टियों की मंशा क्या है. गोरुबथान में आयोजित तृणमूल कांग्रेस की एक पथ सभा में अनित थापा ने कहा कि सिक्किम और दार्जिलिंग में क्षेत्रवाद की रक्षा के लिए मतदान होना जरूरी है. भाजपा की मंशा स्पष्ट हो जाती है. सिक्किम के राजनीतिक दलों को समझ लेना चाहिए और भाजपा को मुँहतोड़ जवाब देना चाहिए. देखा जाए तो सिक्किम हो अथवा दार्जिलिंग क्षेत्रीय दलों का रहना जरूरी है. क्योंकि राष्ट्रीय दल के बजाय स्थानीय मुद्दों पर एक क्षेत्रीय दल ही ठीक तरह से काम कर सकता है. परंतु जेपी नड्डा का यह बयान पूरी तरह राजनीतिक था और केवल अपनी पार्टी के प्रचार के लिए ही था. अतः इसे गंभीरता से नहीं लेना चाहिए.
दूसरी तरफ दार्जिलिंग की क्षेत्रीय दलों की राजनीति की बात करें तो क्षेत्रीय दलों के नेता तो जेपी नड्डा के बयान को सार्थक ही साबित कर रहे हैं. चाहे अनित थापा का भारतीय गोरखा प्रजातांत्रिक मोर्चा हो या फिर अजय एडवर्ड की हाम्रो पार्टी या मन घीसिंग का गोरखा राष्टीय मुक्ति मोर्चा या फिर बिमल गुरुंग का गोरखा जनमुक्ति मोर्चा यह सभी क्षेत्रीय दल किसी न किसी बड़े दल के सहारे ही अपनी नैया पार लगाने की जुगत में है. इन क्षेत्रीय दलों के पास अपना कोई मुद्दा नहीं है. अगर मुद्दा है भी तो उस पर अभी फोकस नहीं कर रहे हैं. गोरखालैंड की बात ही ना करें तो अच्छा.
अजय एडवर्ड पहाड़ में आंधी तूफान की तरह आए थे. पहाड़ के लोगों को लग रहा था कि यह अरविंद केजरीवाल की तरह ही पहाड़ की जनता को प्रभावित करेंगे और पहाड़ की समस्या के समाधान के लिए काम करेंगे. लेकिन तूफान बनकर आए और आंधी की तरह ही उड़ गए. अब अजय एडवर्ड कांग्रेस में अपना भविष्य तलाश कर रहे हैं.उनकी पार्टी के अधिकांश कार्यकर्ता या तो भाजपा में शामिल हो चुके हैं या दूसरे दलों के पास छिटक कर जा रहे हैं. उनकी पार्टी का वजूद खतरे में है.
विमल गुरुंग कल तक गोरखालैंड के लिए अपनी जान देने की बात कहते थे. गोरखालैंड के लिए उन्होंने लंबी लड़ाई लड़ी भी है. लोकसभा चुनाव से पहले गोरखालैंड भूल कर उत्तर बंगाल में पृथक राज्य की बात करने लगे. खुद चुनाव लड़ने की भी उन्होंने मंशा जाहिर की थी. अब वह भाजपा के पाले में चले गए हैं. गोरखालैंड फिलहाल कोई मुद्दा नहीं है. भाजपा को जीत दिलाना ही उनका एकमात्र लक्ष्य है. इसी तरह से मन घीसिंग वाली पार्टी गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा, जिसका एकमात्र उद्देश्य गोरखालैंड है, यह पार्टी शुरू से ही भाजपा का समर्थन कर रही है. पिछले दिनों मन घीसिंग, विमल गुरुंग और दूसरे क्षेत्रीय दलों के नेता राजू बिष्ट को लोकसभा चुनाव में जीत दिलाने के लिए राजू बिष्ट के साथ एक मंच पर नजर आए थे.
अनित थापा की बात करें तो जीटीए के अध्यक्ष ने हाल ही में दार्जिलिंग पहाड़ में हुए पंचायत चुनाव में भारी जीत हासिल की थी. लेकिन अनित थापा की राजनीति तृणमूल कांग्रेस और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के गिर्द घूमती है. अब वह गोरखालैंड की बात नहीं करते हैं. पहाड़ में या तो भूमिपुत्र की बात करते हैं या फिर विकास की. हालांकि उनकी राजनीति क्षेत्रवाद से युक्त है. पर सच्चाई यह है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस के सहारे ही उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा परवान चढ़ रही है. अनित थापा ने कहा कि भाजपा हमारे क्षेत्रवाद को खत्म करने की कोशिश कर रही है. जबकि ममता बनर्जी ने कभी भी क्षेत्रवाद में हस्तक्षेप नहीं किया है.
अनित थापा की जुबान पर गोरखालैंड का नाम नहीं आ रहा है. जबकि दार्जिलिंग के लगभग सभी क्षेत्रीय दलों का प्रादुर्भाव गोरखालैंड के लक्ष्य को लेकर ही हुआ है. परंतु बड़े दलों के आगे घुटने टेक कर यह सभी क्षेत्रीय दल वर्तमान में पहाड़ के जमीनी मुद्दे से भटक गए हैं. कभी विनय तामांग का पहाड़ में वर्चस्व था. उन्होंने स्थानीय मुद्दों की राजनीति की थी. लेकिन जब उन्हें इसमें कोई फायदा नजर नहीं आया, तब उन्होंने कांग्रेस का दामन थाम लिया. इस तरह से देखते हैं कि अधिकांश क्षेत्रीय दल किसी न किसी बड़े दलों की बैसाखी के जरिए अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं.
ऐसे में सवाल उठता है कि यह क्षेत्रीय दल आखिर कब तक अपना वजूद बचा कर रखेंगे? क्या इस तरह से क्षेत्रीय दलों का वजूद खत्म होता नहीं जाएगा? आज स्थिति यह है कि विधानसभा अथवा लोकसभा चुनाव में इन दलों को अपना स्वतंत्र उम्मीदवार देने की क्षमता नहीं है. यह सभी कहीं ना कहीं बड़े दलों पर निर्भर करते हैं. और बड़े दल इनका फायदा उठाते हैं.
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