May 17, 2024
Sevoke Road, Siliguri
Uncategorized

तमसो मा ज्योतिर्गमय! दीपावली: परंपरा या औपचारिकता?

आज दिवाली है. घर, आंगन, चार दीवारी, सब जगह दीए जल रहे हैं. लेकिन इन दीओं में सरसों का तेल नहीं बल्कि बिजली का करंट दौड़ रहा है. आप इन्हें लट्टू कह सकते हैं. माता लक्ष्मी का पूजन हो रहा है. परिवार के लोग एकत्र हुए हैं. माता की प्रतिमा को रंग-बिरंगे लटटुओं से सजाया गया है. ट्यून लाइट जलबूझ रहे हैं. अच्छा तो लगता है लेकिन कहीं ना कहीं कुछ कसक भी उठ रही है. अगर अचानक बिजली चली गई तो क्या होगा?

मकान, दुकान ,प्रतिष्ठान, घर, आंगन सब अंधेरे में डूब जाएंगे. अनादि काल से ही दिवाली को लेकर कहा जाता है. तमसो मा ज्योतिर्गमय… यानी अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो. दीपावली अमावस्या को मनाई जाती है. अमावस्या की रात अत्यंत डरावनी और स्याह अंधेरी होती है. मन के डर और धरती के अंधकार को दूर करने के लिए उजाले की आवश्यकता है.

बिजली अंधेरी रात को चीर सकती है.लेकिन इसका भरोसा नहीं कि कब गुल हो जाए और फिर से अंधेरे का साम्राज्य धरती पर पसर जाए. वैसे भी बिजली मन के अंधेरे को दूर नहीं कर सकती. मन के अंधेरे तो सरसों के तेल के दीए में से ही दूर होते हैं. एक युग था जब दिवाली से एक महीने पहले ही उल्लास का वातावरण चारों तरफ छा जाता था. प्रकृति झूमने लगती थी. पेड़, पौधे, पशु ,पक्षी सब पर दीपावली का उल्लास देखा जाता था. घर में सबसे ज्यादा बच्चे खुश होते थे. क्योंकि दीपावली पर उनके लिए नए कपड़े मिलते थे. मिठाइयां मिलती थी. वह भी घर में दादी नानी के हाथों की बनी शुद्ध घी की बनी मिठाइयां…आज की तरह मिलावटी और डिजिटल मिठाइयां नहीं!

दीपावली में घर का मुखिया 1 हफ्ते पहले से ही योजना बना लेता था. दीपावली के 2 दिन पहले से ही तैयारियां शुरू हो जाती थी. पूरा परिवार एक साथ दीपावली मनाता था. पटाखे छोड़े जाते थे. बच्चे फूलझरियां जलाते थे. दीपावली के दिन शाम होते ही दादी मिट्टी के दीओं में सरसों का तेल लबालब भर देती थी ताकि दीए रात तक जलते रहें. और जब दीपावली बीत जाती थी, तो बच्चे और बड़े सभी उदास होते थे… आज की दीपावली ऐसी नहीं है.

तीज त्यौहार मनाने का हमारा अंदाज बदल चुका है. हम डिजिटल युग में खड़े हैं. हमारे विचार, सोच, आदर्श और परंपराओं पर भी डिजिटल का असर पड़ते देख रहे हैं. हम मन को धोखा दे रहे हैं कि परंपरा और संस्कृति को जी रहे हैं. जबकि सच यह है कि इन त्योहारों में हमारा कोई उत्साह नहीं रहा. डिजिटल युग में दीपावली आती है, तो इसका हमारे मन में कोई उत्साह नहीं होता. बल्कि दीपावली पर होने वाले खर्च का गुणा भाग करने लगते हैं. बरसों से चली आ रही दिवाली मनाने की परंपरा को हम औपचारिकता का नाम दे सकते हैं. उसके बाद सब कुछ खत्म और फिर पहले की तरह एक ही दिनचर्या…भागदौड़, व्यापार, मुनाफा…!

डिजिटल युग का मनुष्य माता लक्ष्मी से स्व कल्याण की कामना करता है. सर्व कल्याण की नहीं. लेकिन माता लक्ष्मी तो सर्व कल्याण करती है. ऐसे में धरती के इंसान को माता की कृपा प्राप्त नहीं होती. माता लक्ष्मी चाहती है कि मनुष्य के दिल का अंधेरा दूर हो सके. मन में उजाला लाने के लिए इंसान को उदार व परोपकारी बनना होगा. यह दिखावा नहीं बल्कि मन और आत्मा से होना चाहिए. तभी हमें सच्ची खुशी मिलेगी और मां लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है. यही दिवाली है और दिवाली मनाने की परंपरा है. तभी हम तमसो मा ज्योतिर्गमय को सार्थक सिद्ध कर सकते हैं!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

DMCA.com Protection Status