जलपाईगुड़ी जिला अस्पताल के मुर्दाघर में अपने लोगों का शव लेने आए परिजनों की अलग व्यथा है. वह ना तो अपने नजदीकी व्यक्ति के खोने का मातम मना सकते हैं और ना ही अपने करीबी की मौत पर खुलकर आंसू बहा सकते हैं. उन्हें तो उस लाश का इंतजार रहता है,जो उनके अपनों का होता है और जिसके पोस्टमार्टम के लिए पुलिस शव को मुर्दा घर ले जाकर छोड़ देती है. अपनों के खोने का दर्द परिजन दिल में ही दबा कर रखते हैं. क्योंकि अगर रोने अथवा मातम मनाने लग जाएं तो शायद लाश उस दिन उन्हें नहीं मिल सके.
मुर्दाघर में भी परिजनों को काफी भागदौड़ करनी पड़ती है. कभी डॉक्टर अथवा सहायक की तलाश, तो कभी इस बात की चिंता रहती है कि इस पूरी प्रक्रिया में कहीं रात ना हो जाए. क्योंकि रात में मुर्दाघर में डॉक्टर लाश का पोस्टमार्टम नहीं करते. अपने करीबी का शव लेने आए लोगों के आंसू सूख जाते हैं. और जब तक उन्हें लाश मिलती है, तब तक काफी देरी हो चुकी होती है. जब तक अपनों की लाश मुर्दा घर से नहीं मिल जाती, तब तक वह अपनी व्यथा का इजहार नहीं कर सकते. समय पर शव नहीं मिलने से उनका परिवार अलग ही परेशान रहता है.
जलपाईगुड़ी जिला अस्पताल के मुर्दाघर में उस दिन कुछ ऐसा ही नजारा था, जब शव का पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर ही गायब थे. परिजन काफी परेशान और घंटो डॉक्टर के इंतजार में खड़े थे. परंतु डॉक्टर साहब का कहीं पता नहीं चल रहा था. कोई 2 घंटे से खड़ा तो कोई 4 घंटे से. सुबह से लेकर दोपहर हो गई. लेकिन पोस्टमार्टम करने वाला डॉक्टर नदारद रहा. चिंता यही थी कि जल्द से जल्द लाश का पोस्टमार्टम हो जाए ताकि वे घर ले जाकर खुल कर अपनों के बीच मृतक की याद में मातम मना सके.
देखा जाए तो कमोबेश यही स्थिति लगभग सभी जिला अस्पताल के मुर्दाघर में है. पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर बहुत कम हैं. संसाधनों का भी अभाव है. उनकी भी अपनी मजबूरी है. पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर आमतौर पर पैथोलॉजिस्ट होते हैं, जिन्हें और भी काम करने होते हैं. अगर डॉक्टर उपलब्ध भी हो गए तो सहायक और संसाधनों की कमी होने पर पोस्टमार्टम तत्काल नहीं हो पाता है. इसके लिए दोषी कौन है? क्या हमारा सिस्टम अथवा संसाधनों की कमी इसके लिए जिम्मेदार नहीं है?
पुलिस तो एक ही भाषा जानती है. संदेह की स्थिति में लाश का पोस्टमार्टम करना होगा. कई बार परिवार वालों की मर्जी नहीं होती. इसके बावजूद पुलिस लाश को पोस्टमार्टम के लिए ले जाती है. हालांकि कानूनन यह सही नहीं है. क्योंकि जब तक परिजनों की अनुमति नहीं हो तब तक पुलिस शव का पोस्टमार्टम नहीं करा सकती. पुलिस तो सीधे लाश को मुर्दाघर में ले जाकर छोड़ देती है. पर वहां पोस्टमार्टम कराना और वापस लाश को प्राप्त करने की कवायद तो परिजनों को ही करनी पड़ती है. अगर किसी का बेटा मारा गया हो तो उस बाप का आंसू अपने बेटे का शव प्राप्त करने में ही सूख जाता है. यह स्थिति बंद होनी चाहिए.
स्वास्थ्य विभाग को तुरंत ही मानवता के आधार पर कुछ ऐसा करना चाहिए कि मुर्दाघर में लाश का पोस्टमार्टम तत्काल हो सके ताकि परिजनों को अपने करीबी लोगों के खोने का मातम मनाने तथा परिवार के दूसरे सदस्यों को ढाढस ब॔धाने का अवसर मिल सके.